मेरे गांव का नम ‘अलावां‘ है लेकिन बोलने की सुविधा के लिए लोगों ने इसे ‘अलामा‘ बना दिया है। यह बिहार के नालंदा जिले में बसा ३–४ हज़ार की आबादी वाला एक छोटा सा गांव है। इसमें से तकरीबन एक–डेढ़ हज़ार तो ५–७ सल् से कम उम्र के बच्चे ही होंगे। सब भगवान् की देन है!! गांव आधुनिकीकरण की और अपने कदम बढ़ा चुका है। शहर या क़स्बा तो नहीं कह सकते पर ऊपर की तस्वीर के अनुसार गांव भी नहीं है। गांव से नज़दीकी बाज़ार तक पक्की सड़क, सरकारी हैंडपंप, बिजली और टेलीफोन के खम्भे, ईंट के माकन, क्रिकेट खेलते बच्चे, और गांव के बाहर के चौक पर पॉलिटिक्स पर बहस करते किसान। बीच बीच में किसी घर से मोबाइल के रिंग की आवाज़ भी आ जायेगी। इक्का–दुक्का जींस–टीशर्ट पहने लड़कियां भी दिख जायेंगी। भले ही चहरे और शरीर के हाव–भाव वही सलवार कुरते वाले ही होंगे।
कभी–कभी लगता है की विकास की कीमत कुछ ज्यादा ही चुकानी पड़ रही है । हम अपनी पहचान, अपनी महक, अपना अस्तित्व खो रहे हैं। मुझे सरकारी हैंडपंप के पाने में पुराने कुँए के पानी वाली मिठास कभी नहीं मिली। टाँगे पर बैठकर एक घंटे में बाज़ार पहुँचने का आनंद जीप या बस से पन्द्रह मिनट में पहुँचने में कभी नहीं मिला। और खेत से तुंरत लाई गयी ‘तोरी‘ और ‘लौकी‘ की सब्जी वाला स्वाद बज़क के पनीर और मशरूम में कभी नहीं मिला।
पर कुछ चीज़ें मुझे अब भी पहले जैसी लगती हैं गांव में। जब भी छुट्टियों में गांव जाता हूँ तो कुछ चीजें ज़रूर करने की कोशिश करता हूँ। जैसे– सर्दियों में पुआल जलाकर आग तापना (सेंकना), घर में चौकी–पलंग वाले बिस्तर पर न सोकर दालान में पुआल पर बिस्तर बिछाकर सोना। सचमुच वह आनंद आपको इम्पोर्टेड गद्दों में भी नहीं मिलेगा। गर्मियों में मैं बिजली रहने पर भी छत के ऊपर खुले में सोना पसंद करता हूँ (शुक्र है की वहां दिल्ली जितने मच्छर नहीं हैं)। चांदनी रात में दूर कहीं रेडियो पर कोई पुराना गीत बज रहा हो और छत पर लेटकर तारों के अंतरजाल को देखते रहने के आनद को शब्दों में समेत पाना सचमुच मुश्किल है।
कभी–कभी गाँव में तेज़ी से हो रहे बदलावों से मन क्षुब्ध तो होता है पर पता नहीं क्यों गांव के प्रति लगाव और आकर्षण दिनों–दिन और बढ़ता ही जाता है। शायद गुजरते, फिसलते पलों को ज्यादा से ज्यादा समेत लेने, जी लेने, रोक लेने की ख्वाहिश और आने वाले वक्त के प्रति मन में छुपे भय के कारण ऐसा हो।
ham log GAON[VILLAGE] se bandhe hain .gaon ki mitti amrit ke saman hai so must should be associted with our GAON[VILLAGE].
IS ME AAP GRAMIN PARIVESH OR SHAHARI PARIVESH PAR DONO ALAG KARE TO JYADA THIK RAHEGA.
Yahan rukne pe to bahut maja aayaa…aapke Gaanv ki charcha to humlongo ko bhi apne bachpan aur gaon me bitaye din ka yaad dilaya.Lekin aapke vivran ka tarika bahut hi achha laga aur man ko bahut achha laga.
Likhte rahen…atleast humlogon ke bare mein sochkar….
Rajiv & Gaurav
[…] मेरा गांव (via चौपाल) गांव शब्द सुनते ही हम अपने मन में एक तस्वीर सी बना लेते हैं – कमर पे घड़ा रखे कुँए से पानी भरकर आती औरतें, खेतों से हल-बैल लेकर लौटते किसान, गांव के बहार के मैदान में गिल्ली-डंडा खेलते बच्चे, दिए और लालटेन की रोशन में बच्च्चों को सुलातीं दादी मां, आँगन से उठाते चूल्हे के धुएँ की सोंधी खुशबू और दूर खेतों से आती किसी ट्यूबवेल के चलने की आवाज़॥यदि हम भी मेट्रोपोलिटन सिटीज़ में पैदा हुए होते तो शायद गावों की यही तस्वीर हमारे मन में भी रहती। और शायद यह … Read More […]
this is very good thouhgt
it is very interesting